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उत्तर भारत में तबाही: बाढ़ और भूस्खलन से सैकड़ों मौतें, लाखों प्रभावित


देहरादून।

प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक आचार्य प्रशांत ने कहा है कि उत्तर भारत इस समय जलवायु संकट के सबसे भयावह दौर से गुजर रहा है। मानसून की भारी बारिश ने उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर और पंजाब में कहर ढा दिया है। सैकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है, हजारों घर जमींदोज़ हो गए और लाखों लोग विस्थापित हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि यह कोई “प्राकृतिक आपदा” नहीं, बल्कि गलत विकास मॉडल और जलवायु पतन का नतीजा है।

उत्तराखंड: पहाड़ दरक रहे, गाँव बह रहे
उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग, टिहरी, पिथौरागढ़ और चमोली ज़िले सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं।

बादल फटने से दर्जनों गाँव मलबे में दब गए।
ऋषिकेश-बद्रीनाथ और गंगोत्री हाईवे कई जगहों पर ध्वस्त हो गए।
SDRF और ITBP की टीमें रेस्क्यू में जुटी हैं, लेकिन भूस्खलन लगातार राहत कार्य में बाधा डाल रहा है।
हिमाचल और कश्मीर: नदियों का उफान
शिमला, कुल्लू, किन्नौर और चंबा में बस्तियाँ भूस्खलन से तबाह हुईं।
ब्यास और चिनाब नदियों ने कई जगह पुल और सड़कें बहा दीं।
जम्मू-कश्मीर में झेलम नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही है, श्रीनगर के निचले इलाके डूब गए हैं।
पंजाब: खेत डूबे, किसान बर्बाद
पंजाब में सतलुज और ब्यास नदियों के उफान ने जालंधर, कपूरथला और फिरोज़पुर ज़िलों में तबाही मचा दी।

500 से अधिक गाँव जलमग्न हो गए।
धान की फसल बर्बाद, मवेशी बह गए।
हज़ारों परिवार राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं।
किसानों का कहना है कि “बाढ़ ने सालभर की मेहनत छीन ली, अब कर्ज़ चुकाना असंभव है।”
जलवायु संकट की असली तस्वीर
विशेषज्ञ मानते हैं कि इस तबाही की जड़ें कहीं गहरी हैं।

एशिया वैश्विक औसत से दोगुनी रफ़्तार से गर्म हो रहा है।
मानसून अब कम दिनों में ज़्यादा पानी बरसा रहा है, जिससे बादल फटने जैसी घटनाएँ बढ़ रही हैं।
हिमालयी ढलानों पर निर्माण, चारधाम परियोजना और बाँधों ने ज़मीन को अस्थिर बना दिया है।
पंजाब में भूजल दोहन और खेती की गलत नीतियाँ बाढ़ के जोखिम को कई गुना बढ़ा देती हैं।
असमानता की मार
सबसे ज़्यादा प्रभावित वे लोग हैं जिन्होंने जलवायु संकट में सबसे कम योगदान दिया।

पहाड़ों के ग्रामीण परिवार अपने घर और खेत खो बैठे।
पंजाब के किसान कर्ज़ और विस्थापन के दोहरे संकट में हैं।
महिलाएँ और बच्चे असुरक्षित राहत शिविरों में बीमारी और कुपोषण से जूझ रहे हैं।
आचार्य प्रशांत का कहना है “यह आपदाएँ प्रकृति का प्रकोप नहीं, बल्कि मानव की मूर्खता का नतीजा हैं। विकास का मतलब केवल सड़कें, होटल और बाँध नहीं हो सकता। प्रगति वही है जो जीवन को टिकाऊ और सुरक्षित बनाए।”

उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर विकास की परिभाषा नहीं बदली, तो आने वाले वर्षों में तबाही और भयावह होगी। “ऑपरेशन 2030” जैसे अभियानों के ज़रिए लोगों को उपभोग की दौड़ छोड़कर प्रकृति के साथ संतुलन साधने की अपील की जा रही है।

उत्तर भारत की यह तबाही साफ़ संकेत है कि अब “प्राकृतिक आपदा” कहकर दोष टालने का समय बीत चुका है। यह जलवायु संकट की जीवित चेतावनी है—अगर हमने अभी अपनी आदतें और नीतियाँ नहीं बदलीं, तो भविष्य और भी भयावह है।

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