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उत्तराखंड में सतत कृषि के लिए विचारवान दृष्टि आवश्यक


-सुरेश नौटियाल

उत्तराखंड के संदर्भ में सतत कृषि का अत्यंत महत्व हो सकता है. आप जानते है कि पर्वतीय क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा खेत होते हैं. इनमें से अधिकतर ढलान वाले होते हैं. और यदि ढलान वाले न हों तब भी हल लगने या गुड़ाई के बाद टॉपसोइल अर्थात सतह की उपजाऊ मिट्टी वर्षा के पानी के साथ बह जाती है. ऐसे में सतत कृषि की पद्धवतियां कारगर साबित हो सकती हैं. मिट्टी नहीं बहेगी तो भूमि की उर्वरा शक्ति लंबे समय तक बनी रहेगी. ऐसी कृषि से पशुओं के लिए चारा भी अधिक मिलेगा – फिर चाहे क्यारियों में घास उगाओ या चाहे भीमल उगाओ. अर्थात समय आ गया है कि उत्तराखंड और अन्य पर्वतीय क्षेत्रों के किसान सतत कृषि को अपनाएं!
कुछ वर्ष पूर्व टिहरी गढ़वाल की सोद्देश्य यात्रा के दौरान जैविक खेती (ऑर्गेनिक) और सतत कृषि (परमाकल्चर) के दो उदाहरण देखने को मिले. इन्हें देखने के बाद लगा कि आने वाले समय में वृक्ष खेती वाले स्थानों पर जैविक और सतत कृषि कार्य भी किये जा सकते हैं. ऐसे प्रयोगों को बिजनेस मॉडल बनाकर इन्हें सस्टेनेबल भी बनाया जा सकता है.
जैविक खेती के बारे में तो बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जाता है पर यह परमाकल्चर अर्थात सतत कृषि क्या है, थोड़ा पहले इस बारे में जानें! परमाकल्चर कृषि की ऐसी विधा है जिसमें सीधे-सीधे प्रकृति की व्यवस्था अथवा पारिस्थितिकी की नैसर्गिक प्रकृति को अपनाया जाता है. परमानेंट एग्रीकल्चर को जोड़कर परमाकल्चर शब्द ऑस्ट्रेलिया के एक छात्र डेविड हॉमग्रेन और उनके प्रोफ़ेसर बिल मॉरिसन ने पिछली सदी में गढ़ा था. परमाकल्चर का अर्थ है परमानेंट एग्रीकल्चर अर्थात सतत कृषि जिसे नैसर्गिक रूप से निरंतर किया जा सकता है. समाज की परिपाटी इस विधा में अन्तर्निहित मानी गयी. जापान के मासानोबू फुकुओका के प्राकृतिक कृषि सिद्धांत से यह विधा प्रेरित दिखाई देती है. इस विधा के वैसे तो अनेक सूत्र हैं पर जो सबसे महत्वपूर्ण लगता है वह है समेकित जल संपदा प्रबंधन क्योंकि यह सतत कृषि के लिए अत्यंत आवश्यक है. ऐसी परिस्थिति होने पर ही सतत कृषि के अनुकूल ऐसा वातावरण बन सकता है जिसमें बीज अपने-आप पौधों में परिवर्तित हों और नैसर्गिक पारिस्थितिकी के आधार पर कृषि प्रणाली विकसित हो. वृक्ष खेती इसमें महत्वपूर्ण है.
मॉरिसन ने ठीक ही कहा कि परमाकल्चर अर्थात सतत कृषि ऐसा दर्शन है जिसमे प्रकृति के साथ चलना होता है. इसमें विचारशून्य परिश्रम के बजाय विचारवान दृष्टि विकसित करनी होती है. पौधों और पशुओं की हर गतिविधि पर अध्ययनशील दृष्टि रखनी होती है.
कृषि की इस विधा को अनेक लोगों ने आगे बढाने के प्रयास किये. मॉलिसन से पहले वर्ष 1929 में जोसेफ रसेल स्मिथ ने वृक्ष खेती को सतत कृषि की श्रेणी में शामिल कर दिया था. “ट्री क्रॉप्स: ए परमानेंट एग्रीकल्चर” नाम से उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी. इसमें फलों और काठफलों की ऐसी फसलों को लेकर किये गए उनके अपने प्रयोगों का उल्लेख है जो मनुष्य से लेकर पशुओं तक के लिए भोजन उपलब्ध करा सकते हैं. स्मिथ ने अपने प्रयोगों के आधार पर कहा कि वृक्षों के नीचे फसलें उगाने की तरकीबें होनी चाहिए और अर्थात वृक्ष खेती और जैविक खेती एक साथ. इस पुस्तक ने अनेक लोगों को प्रेरित किया और उन्होंने कृषि को अधिक सतत और निरंतर बनाने के प्रयास किये. उन्नीस सौ तीस के दशक में जापान में तोयोहिको कागवा ने तो वनकृषि का उदाहरण ही प्रस्तुत कर दिया.
वर्ष 1964 में ऑस्ट्रेलिया में पीए इयोमैन ने अपनी पुस्तक “वाटर फॉर एवरी फार्म” में सतत कृषि की परिभाषा में कहा कि यह खेती की ऐसी विधा है जिसे अनिश्चितकाल तक निरंतर किया जा सकता है. इससे पहले 1930 के दशक में जापान में मासानोबू फुकुओका एयर ऑर्चर्ड और गार्डन्स विकसित करने में जुट गए थे जिनके लिए खेती को खोदना नहीं पड़ता है और कृषि नैसर्गिक रूप से की जाती है.
ऑस्ट्रेलिया के तस्मानिया प्रांत में 1960 के दशक में बिल मॉरिसन और डेविड हॉमग्रेन ने टिकाऊ कृषि प्रणाली पर काम शुरू किया. कृषि के औद्योगिक कृषि में बदल जाने के आसन्न खतरे को भांपते हुए इस लोगों ने सतत कृषि पर काम किया. इन लोगों का कहना था कि औद्योगिक कृषि ऐसे संसाधनों पर आश्रित है जिनका नवीनीकरण नहीं किया जा सकता है और जो पानी और कृषिभूमि को जहरीला बना रहे हैं जिस कारण से जैव-विवधता भी गड़बड़ा रही है. उन्होंने यह भी देखा कि जिस प्रकार से खेती की जा रही है, उसमें अरबों-खरबों टन मिट्टी (टॉपसोइल) बह जा रही है. इसका हल इन लोगों ने परमाकल्चर में ढूंढा. वर्ष 1978 में अपनी पुस्तक “परमाकल्चर वन” में उन्होंने परमाकल्चर शब्द का उपयोग किया और खेती की सतत विधा के लिए तब से यही शब्द उपयोग में लाया जा रहा है.
अस्सी के दशक के आरंभ में यह अवधारणा आगे बढ़ी. मॉरिसन ने अपनी इस विधा पर अस्सी से अधिक देशों में व्याख्यान दिए और इसे लोगों तक ले गए. इस विधा ने एशिया, सेंट्रल अमेरिका इत्यादि में वस्तुत: आंदोलन का रूप भी लिया.
सतत कृषि का पहला सिद्धांत भूमि संरक्षण है अर्थात भूमि में जीवन जिस किसी रूप में है, उससे छेड़छाड़ नहीं करना और उसकी निरंतरता बनाए रखना. यह इसलिए है क्योंकि स्वस्थ धरती के बिना मानव भी सुरक्षित नहीं रह पायेगा. इसके बाद बारी आती है जनता की. इसके अंतर्गत जनता को उन संसाधनों के उपयोग की अनुमति होनी चाहिए जो उसके अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं. संसाधनों के उपयोग के पश्चात जो वेस्ट (कचरा) बचता है उसका उपयोग खाद बनाने में किया जाना चाहिए. तीसरा सिद्धांत है उचित हिस्सेदारी, अर्थात किसी को भी आवश्यकता से अधिक हिस्सा नहीं मिलना चाहिए. जो बचे उसका उपयोग पुनर्निवेश के रूप में किया जा सकता है.
सतत कृषि का अर्थ भूमि की स्थिति और गति, प्राकृतिक संसाधनों और स्थान विशेष में उपलब्ध जीव-जंतुओं के गठजोड़ से भी है. सतत कृषि ऐसी स्थिति है जिसमें इन सबका बेहतर समन्वय स्थापित किया जाता है. मानव श्रम, वेस्ट, ऊर्जा के न्यूनतम उपयोग से भी इसका मतलब है. इसका क्रियान्वयन करने की विधियां भी अनेक है और हो सकती हैं. भूमि की प्रकृति की समझ विकसित करना भी आवश्यक है. पेड़-पौधों, भूमि की ऊपरी सतह, मिट्टी, फफूंद, कृमि, जीव-जंतु इत्यादि, इत्यादि का सतत कृषि में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि रासायनिक उर्वरकों के लिए इसमें कोई स्थान नहीं है.
सतत कृषि में ऐसी स्थितियां उत्पन्न करना भी आवश्यक है कि भूमि अपने स्वास्थ्य का स्वयं ध्यान रखे और साथ ही मनुष्य भी इसमें सहायता करे.
पालतू जानवर भी इस पूरी व्यवस्था का अंग हैं. पारिस्थितिकी में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है चाहे वे जंगली ही क्यों न हों. खर-पतवार को भोजन के रूप में ग्रहण करने, बीजों को फैलाने, मिट्टी को उर्वरा बनाने, जंगल में फल-घास इत्यादि खाकर गोबर देने इत्यादि में इनकी भूमिका है. सतत कृषि में तो गाय, बकरी, मुर्गी, खरगोश, केंचुए जैसे कृमि इत्यादि की भूमिका के बारे में कहने की आवश्यकता नहीं है.
एग्रोफोरेस्टरी का भी सतत कृषि में विशेष स्थान है. अर्थात वृक्षों के साथ-साथ झाड़ियों और फसलों का उत्पादन और साथ ही पशुपालन. और जिसे हम खर-पतवार (मल्च) समझते हैं वह वास्तव में भूमि को ढकने का बेहतर काम कर सकता है. कोमल अंकुरों को छाया देने के साथ-साथ यह हवा-पानी की सीधी मार से भी बचा सकता है.
उत्तराखंड जैसे राज्य में यह सतत कृषि एक नूतन अवधारणा है और अभी स्थानीय किसान इस प्रकार की खेती को देखकर हंसते हैं. वर्ष 2011 में ऑवेन हैबलुत्ज़ेल ने ठीक ही कहा कि विज्ञान की दुनिया में भी इसे अभी मान्यता नहीं है.
वर्ष 2004 में गोआ स्थित प्रकाशक अदर इंडिया प्रेस ने फिनलैंड के विचारक और विज्ञान लेखक रिस्तो इसोमाकी और अपनी एक्टिविस्ट-नेता मेनका गांधी की पुस्तक “द बुक ऑव ट्रीज” छापी थी. इस पुस्तक में मूल रूप से जो बातें लिखी गयी थीं उनमें प्रमुख थीं कि किस प्रकार के वृक्ष किस प्रकार की जलवायु और किस प्रकार के वातावरण में उत्पन्न हो सके हैं, धरती का तापमान नियंत्रित करने में वृक्षों की क्या भूमिका है और कैसे हम फलवृक्ष लगा सकते हैं अर्थात कैसे हम वृक्ष खेती कर सकते हैं. आशय यह था कि आने वाले समय में जब तापमान बढ़ जाएगा और नमी के साथ-साथ खेती की जमीन भी कम हो जायेगी तब कम जगह में कैसे अधिक खाद्य-पदार्थ उत्पन्न किये जा सकेंगे.
इस पुस्तक ने मुझे अत्यंत प्रभावित किया था और मैं इस बात को लेकर आश्वस्त सा हो गया था कि आने वाली कुछ और अधिक पीढ़ियों को भोजन की चिंता नहीं करनी पड़ेगी. वृक्ष वर्टिकल (ऊपर की ओर) उगते हैं और कम स्थान लेते हैं. और सबसे बड़ी जो बात है वह यह कि वृक्ष एक बार लगाओ और वर्षों-वर्षों के लिए छुट्टी! मौसमी फसल की तरह इन्हें बार-बार नहीं लगाना पड़ता है. इसी पुस्तक में वर्णित है कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों में ऐसे-ऐसे वृक्ष हैं जो कई-कई सौ वर्ष तक फल देते हैं. इस प्रकार, वृक्ष खेती भी सतत कृषि का ही एक अन्य रूप है. अंत में यही कि धरती, वनस्पतियों-वृक्षों, मानव और अन्य जीवों को बचाने के लिए जैविक और सतत कृषि कर्म आवश्यक है.

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