उत्तराखंड में गीता को जीते जी वो सम्मान नहीं मिला जिसकी वो हकदार थी। उसकी मदद के लिए आवाज भी नहीं उठी.. अब हम केवल श्रद्धांजलि ही दे पा रहे हैं। कारण जानिए …
वेद विलास उनियाल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक
गाना एक बड़ी कला है। लेकिन दुर्भाग्य से उत्तराखंड में गाने को ही कला मान लिया है। गायक या गायिका के अलावा वादक अभिनय करने वाले साजिंदे नृत्य करने वाले, कोरियोग्राफर कोरस वाले सब दोयम मान लिए जाते हैं।
इस प्रथा को सबसे ज्यादा उत्तराखंड के कल्चर कार्यक्रम करने वालों ने बढाया। उन्होंने सेलिब्रिटी केवल गायन करने वालों को ही माना। यहीं से किसी नए गायक गायिका को भी लोक गायक या लोकगायिका पुकारने की परंपरा शुरू हो गई। यानी जो गा रहा है वो लोक गायक ।
आयोजन करने वालों ने अपने पोस्टर में केवल गाने वालों को ही सजाया। बात गीता के बहाने हो रही है । बात कई ऐसे कलाकारों पर कर रहे जिनकी कला की प्रशंसा होती रही लेकिन वे उपेक्षित रहे। लेकिन क्षेत्रीय कलाकारों की खूब उपेक्षा हुई। या फिर यही मना गया कि जब कोई मुंबई फिल्मों की हिरोइन हो जाए तभी वो सेलिब्रिटी है या कलाकार है। हम क्षेत्रीय प्रतिभाओं के महत्व को नहीं समझ पाए।
याद है आपको पिछले तेइस साल में किसी कार्य़क्रम करने वालों ने किसी पोस्टर में किसी नृत्य करने वाली लड़की को पोस्टर में दिखाया हो। केवल
हाल ये है कि अगर कोई अभिनेत्री या खिलाड़ी को मंच में बुलाया गया तो उसकी क्षमता की पहचान इस बात से कराई गई कि वो बेडू पाको गीत गा सकते है या नहीं।
कभी किसी सांजिदें का नाम पोस्टर में नहीं देखा। किसी नए गायक के बस एक दो गीत चल जाए तो वह स्टारों की तरह
बड़ी फीस मांगने लगते हैं। कई बार गाने वालों की फीस भी चौंकाती है। लेकिन
17 फिल्म और 300 से ज्यादा एलबम में अभिनय करने वाली गीता जैसे कलाकार अपनी डिमांड नहीं रख पाते। यह हमारी विडंबना है। सामूहिक नृत्य करने वाली की उपेक्षा तो और ज्यादा। उन्हें तो कई जगह ब्रेड पकोड़ा और चाय में टरका दिया जाता है। यह कलाकारों का शोषण है। गीता जैसे कई कलाकारों को आज बहुत संपन्न होना चाहिए था। क्योंकि राज्य बनने के बाद संस्कृति के नाम पर खूब पैसा बरसा। लेकिन गायक गायिकाओं की तरह ये कलाकार पैसा नहीं कमा सके। यह अलग बात थी कि इस उपेक्षा में भी गीता अपनी कला की साधना करती रही।
कार्यक्रम करने वाले आयोजकों को यही लगता रहा कि पूरा आयोजन ही गाने वालों के कारण हो रहा हो। दरअसल हम मुंबई के फिल्मी कार्य़क्रमों की और टीवी प्रोग्रामों की नकल करने लगते हैं और हमारे कार्य़क्रम में पहाडी झलक दूर दूर तक नहीं हो पाती। हमारे लोकनृत्यों युगल नृत्यों पारंपरिक नृत्यों को प्रस्तुत करने वाले कलाकार उपेक्षित रहते हैं। उन्हें सजा धजा कर भीड़ का हिस्सा मान लिया जाता है। कम सुनने को मिलता है कि नृत्य करने वाली किसी कलाकार का नाम मंच से पुकारा गया हो । यह कुप्रथा रोकी नहीं गई।
इसपर गुस्सा होने की बात नहीं है। बस हम थोड़ा कला के प्रति अपना नजरिया बदल सकें तो अच्छा । गीता को नमन। मां शारदा अपने चरणों में उसे स्थान दें।