अमर्यादित संबंधों को मर्यादित बनाने की पहल
पार्थसारथि थपलियाल
भारतीय संविधान द्वारा स्थापित विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपना अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं। मोटे तौर पर विधायिका का काम कानून बनाना, कार्यपालिका का कार्य कार्यनिष्पादन करना और न्यायपालिका का कार्य संविधान के अनुसार कानून की रक्षा करना है। किसी विषय पर कानून बनाने का मूल दायित्व सरकार का होता है जो विस्तृत सामाजिक चर्चा के बाद बिल तैयार कर संसद के पास जाती है। संसद द्वारा बिल पास होने पर ही अधिनियम बनता है, जिसे कानून भी कहते हैं। कई बार न्यायपालिका यह अनुभव करती है कि अमुक विषय पर कानून बनाना चाहिए या उसमें संशोधन किया जाना चाहिए तब न्यायपालिका सरकार को कानून बनाने के लिए कहती है।
इन दिनों भारत के सर्वोच्च न्यायालय में विद्वान न्यायाधीश
इस विषय पर गहन चिंतन कर रहे हैं कि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए कानून बनाया जाय। समलैंगिक से आशय है एक पुरुष की दूसरे पुरुष से अथवा एक स्त्री की दूसरी स्त्री से विवाह। भारतीय ग्रामीण जीवन में किसान कई बार फसल कटाई और भंडारण के बाद कुछ फ्री रहता है तो उन दिनों में किसान भक्ति, भजन के लिए जागरण या नौटंकी/स्वांग/भगत/रम्मत आदि के आयोजन करता है। बस में पिकनिक पर जाने वाले लोग अंत्याक्षरी खेलते हैं।
समय विताने के लिए करना है कुछ काम… शुरू करो..
ऐसा ही भारतीय न्याय व्यवस्था में भी चल रहा है। ऐसे लोगों को न्याय कैसे दिलाया जाय जो समलैंगिक विवाह करना चाहते हैं। सरकार के ऊपर दबाब बनाया जा रहा है कि वह अपना दृष्टिकोण शीघ्र व्यक्त करे।
विवाह शब्द का अर्थ है वंश वृद्धि के लिए स्त्री और पुरुष के मध्य पारस्परिक संबंध स्थापित करने की सामाजिक मान्यता के लिए किया जाने वाला विशिष्ट कार्य। भारत में सामाजिक संस्कारों में विवाह स्त्री और पुरुष के मध्य ही स्वीकार्य है। उसमें भी विवाहित पति पत्नी के संबंधों से बाहर विवाहेत्तर संबंध बनाना व्यभिचार की श्रेणी में आता है।
हमारे मी लॉर्ड्स अगर भारतीय संस्कृति में पढ़े लिखे होते अथवा उनका सामाजिक ज्ञान उपयुक्त होता तो उन्हें सामाजिक मर्यादाओं का भी ज्ञान होता। मुझे लगता है कि भारतीय नौकरशाहों और न्यायाधीशों को पदभार ग्रहण करने से पहले दो माह का भारतीयता का ज्ञान ग्रहण करना चाहिए।
उन्हें प्रत्येक अंचल की संस्कृति और मान्यताओं को जानना चाहिए। जब भारत मे आधुनिक न्याय व्यवस्था नही थी तब भी पंचपरमेश्वर जैसी कहानी (लेखक मुंशी प्रेमचंद), उससे पहले महाराजा विक्रमादित्य की न्याय शिला की महान परम्परा इस देश में थी। जिस काल मे संसद नही थी, कार्यपालिका नही थी न्यायपालिका का नामों निशान नही था उस काल मे समाज के केवल सामाजिक मान्यता प्राप्त दो शब्दों ने समाज का व्यवस्थित संचालन किया। वे दो शब्द थे- 1.पाप और 2.पुण्य। इसकी निगरानी के लिए न तो घूसखोर पुलिस थी न अंधा कानून व्यवस्था। उन भारतीय परंपराओं में यदि किसी व्यक्ति से थोड़ा सा अनैतिक कार्य हुआ कि वह स्वयं ही मानता कि मुझ से पाप हो गया। ऐसा व्यक्ति प्रायश्चित करता था। प्रायश्चित का पूरा विधान था। नारी पूजनीय उस मर्यादा ने बनाई जो भारत के जन मन में व्याप्त थी। मर्यादा का दक उदाहरण रामचरितमानस के किष्किंधा कांड में बालि वध के समय जब बाली ने पूछा आपके और मेरे मध्य कोई विवाद नही था फिर आपने मुझे क्यों मारा? गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचन्द्र भगवान के चौपाई संवाद में कहा-
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥
अर्थात-
हे मूर्ख! सुन, छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या- ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता।
रंडी, वैश्या, नगरवधू, कुलटा, व्यभिचारी, चरित्रहीन जैसे शब्दों को निकृष्ट माना गया। समलैंगिक विवाह भी निकृष्ट श्रेणी योग्य है। भारत की अधिकतम जनता सामाजिक मर्यादाओं से संचालित होती है फिर सर्वोच्च न्यायालय को इस व्यभिचार को कानूनी मान्यता दिलाने जल्दबाजी क्यों है? हो सकता है कुछ नवधनाढ्यों की बिगड़ी औलादों का दबाब हो अन्यथा भारत मर इस तरह के कानून की कोई आवश्यकता नही।
अच्छा होता हमारे मी लॉर्ड्स न्यायालयों में निलंबित 5 करोड़ मामलों पर अपना निर्णय सुनाते। बहस का विषय तो यह होना चाहिए कि न्यायालय न्याय करते हैं या निर्णय। न्याय तो कभी कभार होता है अन्यथा दो महंगे वकीलों की दलेरलों/ वाक्पटुता में से एक जिसके पक्ष में निर्णय जाता है वह जीतता है। आंकड़े बताते हैं कि भारत मे 1,69,000 केस पिछले 30 सालों से लंबित पड़े हुए हैं। जिस दिन महंगे वकील इन मामलों में रुचि लेंगे उस दिन इनका भी भाग्य प्रबल होगा। अन्यथा बात बात में मानहानि का रुतबा दिखाने वाली हमारी न्यायव्यवस्था महत्वहीन विषयों की ज्वाला जलाए रखकर हमे सांस्कृतिक स्तर पर डराती रहेगी। मी लॉर्ड्स को मानहानि का चाबुक ढूंढने की बजाय आत्मावलोकन करना चाहिए कि वास्तव में उन्हें भारतीय सांस्कृतिक मान्यताओं का आधिकारिक ज्ञान भी है या नही।
(संयोजक- भारतीय संस्कृति सम्मान अभियान)